Friday, 12 October 2012

ये दश्त ये वहशत ये शाम के साये





ये दश्त ये वहशत
 ये शाम के साये 

खुदा ये वक्त तेरी
 आँख को ना दिखाए

उसी के नाम से 
लफ़्ज़ों में चाँद उतरे हैं 
वो एक शख्स की देखो
 तो आँख भर आये

कलि से मैं गुल-ए-तार
 जिसे बनाया था
रुतें बदलती है कैसे
 मुझे ही समझाए 

जो बे चराघ घरों
 को चराग देता है
उसे कहो की मेरे 
शहर की तरफ आये

ये इजतराब-ए-मुसलसल
 अज़ाब है अमज़द 
मेरा नहीं तो किसी
 और का हो जाये 

by annonymous

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