ये दश्त ये वहशत
ये शाम के साये
खुदा ये वक्त तेरी
आँख को ना दिखाए
उसी के नाम से
लफ़्ज़ों में चाँद उतरे हैं
वो एक शख्स की देखो
तो आँख भर आये
कलि से मैं गुल-ए-तार
जिसे बनाया था
रुतें बदलती है कैसे
मुझे ही समझाए
जो बे चराघ घरों
को चराग देता है
उसे कहो की मेरे
शहर की तरफ आये
ये इजतराब-ए-मुसलसल
अज़ाब है अमज़द
मेरा नहीं तो किसी
और का हो जाये
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